सारे जंहाँ में फैला,
यह विनाशक हमारा-हमारा II
सारे जंहाँ में फैला...........
पर्वतों से भी ऊँचा,
भाव हर सामां का
जहाँ पहुँच नहीं इस अदने का,
पर है वो जरुरत हमारा-हमारा
सारे जंहाँ में फैला...........
मुलाजिम हूँ मैं सरकारी,
जहाँ आमद है ना बढियां I
राशन में ही सब, स्वाहा
हो जाता तनख्वा हमारा-हमारा II
सारे जंहाँ में फैला...........
जेब नहीं सिखाता,
चादर से बाहर पैर फैलाना
मजबूर हैं हम, मजलुम हैं हम,
वतन है हमसे बेखबर,हमारा-हमारा I
सारे जंहाँ में फैला..............
ए मेरे वतन के लोगों,
वो दिन हैं क्या याद तुझको I
बहती थी कभी दूध की नदियाँ,
कहाँ गया वह युग प्यारा हमारा-हमारा II
सारे जंहाँ में फैला,
महंगाई का नजारा......
नोट- क्षमाप्रार्थी हैं......मोहम्मद इक़बाल द्वारा रचित देशभक्ति गीत की धुन की पैरोडी के लिए. इसे कदाचित अपमान ना समझें ......बस एक प्रयास भर है लेखक का, देश की तत्कालिक व ज्वलंत समस्याओं के वर्णन का.....