दूरियां तेरे-मेरे दरम्यां की-1




जिंदगी के इस सफ़र में ,

तेरे हम-दम को तरसते हैं..............

चहकते थे कभी तेरे सोहबत में ,

वो लब अब सिसकते हैं      I

गम की तन्हाईयों में अब ; बस

अश्कों के समंदर बरसते हैं      I


                      महफिल मे रम गया होता ,

                      एक कारवां मिल गया होता ,

                      गर तेरा साथ ना छूटा होता     I

                      अब तो वीरान राहों पे अकेले ,

                      काफिले से दूर...........बहुत दूर ,

                       बस मंजिल को तरसते हैं        I


जिंदगी के इस सफ़र में ,

तेरे हम-दम को तरसते हैं..............






तुम हो तो ..........

तुम हो तो हम हैं
तुम हो तो हम हैं      I
तुमसे ही ये गीत- ये नज्म है      I

मैं चाँद , रश्मि हो तुम      I
प्यार के आसमाँ की ,
वो खुबसूरत जमीं हो तुम     I
जिन्हें क्षितिज के उस छोर का इंतजार है
जहाँ दोनों का मिलन हो        I
कैसे बताएं तुम्हें, तुम मेरी कौन हो   ?


सुबह की जवां ओस में ,
दोपहर की तड़पती सोच में ,
ढलती शाम की तन्हाई में ,
रात की हसीन परछाईं में ,
सांसों में - धड़कन में ,
बस तेरा ही अहसास हम-कदम है   I
तुम हो तो हम हैं...

चींटी

क्या तुमने चींटी देखा है ?
पल में ओझल ,
सबमे उपेक्षित ,
क्या वह लघु कीट देखा है ?

                 विधाता की वह पहचान ,
                 कोई कृति कातर ,
                 मांग रहा जीने का
                 अधिकार एक समान   I

वह भी डरता है, जब
धरा में हो कम्पन               I
बदहवाश हो जाता है, जब
जोर से चले पवन                I

                  उर में  दया-प्यार समभाव ,
                  व्यथा से रोता आकुल तन-मन 
                  पद-मर्दित होता है जब ,
                  कौन सुनता उसका क्रंदन ?

तराना-ए-महंगाई

सारे जंहाँ में फैला,
महंगाई का नजारा               I
हम शिकार हैं इसकी,
यह विनाशक हमारा-हमारा    II
         सारे जंहाँ में फैला...........

पर्वतों से भी ऊँचा,
भाव हर सामां का
जहाँ पहुँच नहीं इस अदने का,
पर है वो जरुरत हमारा-हमारा
           सारे जंहाँ में फैला...........

मुलाजिम हूँ मैं सरकारी,
जहाँ आमद है ना बढियां      I
राशन में ही सब, स्वाहा
हो जाता तनख्वा हमारा-हमारा    II
             सारे जंहाँ में फैला...........

जेब नहीं सिखाता,
चादर से बाहर पैर फैलाना
मजबूर हैं हम, मजलुम हैं हम,
वतन है हमसे बेखबर,हमारा-हमारा    I
           सारे जंहाँ में फैला..............


ए मेरे वतन के लोगों,
वो दिन हैं क्या याद तुझको     I
बहती थी कभी दूध की नदियाँ,
कहाँ गया वह युग प्यारा हमारा-हमारा     II
       
         सारे जंहाँ में फैला,
          महंगाई का नजारा......

नोट-  क्षमाप्रार्थी हैं......मोहम्मद इक़बाल द्वारा रचित देशभक्ति गीत की धुन की पैरोडी के लिए. इसे कदाचित अपमान ना समझें ......बस एक प्रयास भर है लेखक का, देश की तत्कालिक व ज्वलंत समस्याओं के वर्णन का.....