संसद के गलबहिंयाँ-आंखमिचौनी (भाग-1)

                        भाग -1

तू हीं अब अंतिम शेर हऊअ यहाँ, ई गुमान काहे
सब दाँव हारल के भरी सभा में अईसन अपमान काहे ।
तू अगर गंगापुत्र भीष्म हऊव न, तो ई कलयुग
शिखंडी से लड़े खातिर, फिर तीर, समशीर मयान काहे ।

मानलीं की भूकम्प न आईल उ नवसिखवा वाणी से
अउर खड़ा हऊअ सही सलामत तनके अभिमानी से
हुकूमत के ताज तोहार सिर लगे, चहुंओर जीत के रंग चढ़े,
फिर भी तोहार परेशान मन, इतना उफान काहे  ।

आज एगो नादान मेमना के गलबहिंया पे इतना रोष
ओकर निष्कपट नैनन के तीर से आहत, उड़ल बा होश ।
का न घटित होईल यहाँ, कौऊन करम-गरिमा अबतक शेष
प्रत्युत्तर में अंगुरी नचा-नचा के, फिर इतना उलहान काहे ।

जंगल सरीख इ महाभारत के खेल, के लगे छुपल बा
तू कर तो बड़का कलंदर, दूसर के कटाक्ष जैसे घुड़की देत कोई बंदर
ताली तो दोनों हाँथ से बजल, तू हूँ कोन मान रखलअ
इ पाठ ईमान के, ई मर्यादा के फिर इतना ज्ञान काहे ।

न कबहुँ बड़बोल, धैर्य-शील होय के चाहीं हाँथी नीयन
लाख चाहे एक सुर में भूँकत सब स्वान राहे ।
का हो सकीला की विकास हो, इपे मंथन होय के चाहीं
बितल रितिया पे खाली इतना बगुला ध्यान काहे ।