Mere Lekh

हिंदी  साहित्य की भी अजीब विडंबना है, काव्र्य-लेख की कोई कमी नहीं पर पढने वालों का जैसे अकाल पडा हो । अंग्रेजी के बढते महत्व ने लोगों में जैसे हिंदी साहित्य के लिए घ्रिणा व हीनता कि भावना भर दी हो । इनदिनो रचनाकर्ता  समुदाय ही वक्ता, श्रोता, विश्लेषक की भूमिका निभाता नजर आता है।

कुछ लिखने के लिए सभी इन्द्रियों को जागृत करने का मशक्कत क्या कम है, जो.................. पाठकों कि तलाश ............में भी करना पडे ।







इनदिनों एक सवाल बड़ा परेशान कर रहा है ............  मैं अखबार क्यों पढूं या मैं टीवी पर न्यूज़ चैनेल्स क्यों देखूं  ?........ क्या इसलिए की पता चले की आज किस राजनेता ने कितना बड़ा घोटाला किया, किसी की इज्जत लुट गई,बेवजह कोई मारा गया या  कोई इस अर्थवादी समाज में छला गया ,कभी परायों से तो कभी अपनों से ? आज के हर मायने बदले हुये हैं I स्वछन्द, सम्भोग और अर्थवादी सोच ने नैतिक मूल्यों को कहीं दूर अवचेतन में दफन कर दिया है; जो एकबारगी सारी व्यसनों- बुरायिओं पर अकुलाता तो है ,लेकिन प्रबल नहीं हो पता I इसलिए तो जो हो रहा है, हमलोग भीष्मवक मूक निहारते हैं I जाने किस मजबूरीवस - जो हो रहा है उससे हमारा क्या? - की मानसिकता में जकडे हुयें हैं I      ........
.............जल्द ही इस पर आधारित कविता को इस ब्लॅाग पर लिखने की चाहत है.............