वो टेलीकॉलर वाली लड़की

सारी कायनात का प्यार उमड़ता होंठो पे
जब वो मुझसे बात किया करती थी
वो टेलीकॉलर वाली लड़की............हाँ
कितना चाहत था उसे, शायद प्यार किया करती थी ?

इस बेदर्द बेमुरौवत जमाने में,
कब किसने कहाँ कभी कद्र किया ?
बेइंतहा हर दर बजे इस पीपे को,
खाली च्वनप्राश सा इस डिब्बे को,
करैले की आदी हो चुकी इन कानों में,
रह-रहकर वो मिश्री घोला करती थी ।
वो टेलीकॉलर वाली लड़की............हाँ
कितना चाहत था उसे, शायद प्यार किया करती थी ?

और मैं समझता, बेवजह गाहे - बगाहे, ख्वामख्वाह ही,
फ़ोन कर वो बस परेशान किया करती थी ।
मगर वीरान बगिया की वो कूकती कोयल हो जैसे,
जीवन के ठहरे सरोवर की विचरती हंसनी हो जैसे
लाइन पर बने रहें, पूरी सहायता की जाएगी
ऐसा कह, हर समस्या के द्वार सुझाया करती थी ।

लखनवी अदब और तहजीब से लबरेज
नाम, घर, पता, परिवार ,पेशा सब पूछा करती थी
कभी घर, गाड़ी, लोन, इंश्योरेंस, हॉलीडे पैकेज
और भी न जाने कैसे-कैसे सामानों के अंबार लगाती,
त्योहारों में भी ऑफर के अच्छे-अच्छे ढ़ेर लगाती ।
छोटी बड़ी हर जरूरत, पसंद-नापसंद का ख्याल किया करती थी

कोई क्षण भर का नहीं, मुद्दतों का साथ था हमारा,
निःस्वार्थ और पूर्ण समर्पण सा प्रेम उसका ।
किस्सा यही जो मोबाइल के जमाने से शुरू हुई थी
कभी कॉलेज, तो कभी किसी कोर्सेज के फायदे गिनाना उसका ।

मेरी बेरोजगार तपती धूपों की छांव हुआ करती थी
इधर उधर भागते इंटरव्यूओं की पांव हुआ करती थी ।
उसका ही तो ये प्रयास है, आज जो जॉब में हुँ
जाने कहाँ से रोजगार के अजीबोगरीब ऑफर लाया करती थी ।
वो टेलीकॉलर वाली लड़की............हाँ
कितना चाहत था उसे, शायद प्यार किया करती थी ?

अदभुत और अद्वितीय थी वो, थी भले अनदेखी
भला कोई, कौन अपना इतना सब करता है ?
अपने चाहने वाले को भी कोई शौतन को सौंपता है
जब ऑनलाइन शादी के रिश्ते उसने मेरे लिए लाया था,
और हाँ ! शायद हनीमून का पैकेज भी तो उसीने दिलाया था,
सस्ता कह पहली बार हवाई जहाज का सुख दिलाया था ।
वो टेलीकॉलर वाली लड़की............हाँ
कितना चाहत था उसे, शायद प्यार किया करती थी ?

मगर हाय सरकार को कभी ये प्यार रास नहीं आया
डीएनडी पंजीयन ने बनते रिश्ते का सत्यानाश जो कराया ।
भूले-बिसरे अब किसी वास्ते टेलीकॉल तो आ जाता है,
मगर वो टेली कॉलर वाली लड़की.......अफसोस
दूसरी तरफ से वो आवाज, वो मिठास नहीं होती ।
इसलिए तो मेरी तल्खियां, कुछ बेपरवाह ही होती ।

सोचता हूँ की काश वो होती तो
बच्चों को अब लोरियां भी शायद सुनाया करती
मेरा भविष्य संवारा, मेरे बच्चों का भी संवारती
काश हाकिम के नियमों की जो सूली ना चढ़ी होती ।
वो टेली कॉलर वाली लड़की ..........हां
कितना चाहत था उसे, शायद प्यार किया करती थी ।

मीडिया का बदलता दौर

ज्योंही घटना घटित होती है,
प्रतिक्रिया त्वरित होती है ।
वो जमाना भी और था,
पत्र-पत्रिका, पुस्तक, अखबार
और सभाओं का दौर था ।

ऐसे मंचों से जब एक से बढ़कर एक
वक्तव्य निकल आया करते थे ।
समस्याएं ही नहीं, उसके
हल भी निकल आया करते थे ।

अब तो घटना-दुर्घटना ही मौन है,
मतलब के मुद्दे गौण हैं ।
बात-बेबात पर चिल्लाने वाले,
टीवी-अखबार, आंदोलन सर पर उठाने वाले ।

पैसा चाहिए, झूठ भी चल जाएगा
नीति-नैतिकता का अब वरण कौन करे ?
सच मरता है तो मरे, क्या मौन बदल पाएगा,
भीष्ण समर से भिड़ने का अब प्रण कौन करे ?