पर्वत उठाए बैठे हैं,
समंदर समाए बैठे हैं |
कठोर सीने की गहराईयों में,
आग इस कदर दबाए बैठे हैं ||
आवाज उतर आती है आँखों से,
जो कई सवाल छुपाए बैठे हैं |
तौलता नहीं जिंदगी औ रिश्तों को,
कई तो हिसाब लगाये बैठे हैं ||
मयस्सर नहीं तन को, आँतों को,
गिद्ध नोचने को, आँख गडाए बैठे हैं |
जाने किसके अरमानों की कब्र पर,
वो देखो, ताजमहल सजाए बैठे हैं ||
खुल न जाए, असलियत हमारी-तुम्हारी ,
दिखावटी मुखौटे, हिजाब लगाए बैठे हैं |
मैल जाती नहीं, मन, कर्म, वचन से,
वो भी, तन से नहाए बैठे हैं ||
राम, बुद्ध, महावीर, नानक के वंशज,
क्यूं घरों में, सीता-द्रौपदी छुपाए बैठे हैं |
इस बार जल जाए रावण, जहाँ कहीं हो,
क्यों ऊपरवाले को, मशऱूफ बनाए बैठे हैं ||
खुद का विश्वास कहाँ डिग गया,
जो हालात से डगमगाए बैठे हैं |
रौशनी निकल के आयेगी कभी तो,
क्यूँ करके दरवाजे बन्द, पर्दे गिराए बैठे हैं ||