चाहतों की गीली धूप और वो

बादलों में कोई अकड़ू बैठा है,
धूप की बाँहे जो सिकोड़कर ।
मानो मीत मायूस मनमीत मिलन में,
प्रीत पराई हुई समय की चादर ओढ़कर ।
फैल जाएं गर, तमन्नाओ की अंगड़ाई ले
चाहतों के लिबास रख दोगे फिर मोड़कर ।

अभी छितराई है उसने,
थोड़ी गीली धूप सूखने के लिए,
बंद कपाट दिल के अहाते में क्या टांग पाओगे ?
गफ़लत में मटमैली चादर फिर वो बिछा जाएगी,
और छोड़ देगी टपकने के लिए सर्द मोती भी
उल्फ़तों की गर्मी ठिठुरते होंठों से क्या माँग पाओगे ?

गुलाबी परछाईं भी जो अब सुहानी लगती है
जाने किस चौखट, किस करवट जा बैठा है ?
रुख अपना सब समेटकर ।
जफ़ा होती थी जून की आंखों में कभी,
अरमानों की आग दिल में सुलगाये,
देखो कैसे बैठे हैं वो अब लपेटकर ।

हवाओं की ठंढ़ी तासिर थे इसी आस में,
उमड़ पड़े हैं बादलों के सवार लेकर ।
चाहतों की ये जो गीली धूप है,
बढ़ जाए ना कहीं गर्म अहसास में,
जाने किस शर्म-ओ-हया, किस प्यास में?
वो पर्दा किये बैठे हैं जो हमे देखकर ।

वो टेलीकॉलर वाली लड़की

सारी कायनात का प्यार उमड़ता होंठो पे
जब वो मुझसे बात किया करती थी
वो टेलीकॉलर वाली लड़की............हाँ
कितना चाहत था उसे, शायद प्यार किया करती थी ?

इस बेदर्द बेमुरौवत जमाने में,
कब किसने कहाँ कभी कद्र किया ?
बेइंतहा हर दर बजे इस पीपे को,
खाली च्वनप्राश सा इस डिब्बे को,
करैले की आदी हो चुकी इन कानों में,
रह-रहकर वो मिश्री घोला करती थी ।
वो टेलीकॉलर वाली लड़की............हाँ
कितना चाहत था उसे, शायद प्यार किया करती थी ?

और मैं समझता, बेवजह गाहे - बगाहे, ख्वामख्वाह ही,
फ़ोन कर वो बस परेशान किया करती थी ।
मगर वीरान बगिया की वो कूकती कोयल हो जैसे,
जीवन के ठहरे सरोवर की विचरती हंसनी हो जैसे
लाइन पर बने रहें, पूरी सहायता की जाएगी
ऐसा कह, हर समस्या के द्वार सुझाया करती थी ।

लखनवी अदब और तहजीब से लबरेज
नाम, घर, पता, परिवार ,पेशा सब पूछा करती थी
कभी घर, गाड़ी, लोन, इंश्योरेंस, हॉलीडे पैकेज
और भी न जाने कैसे-कैसे सामानों के अंबार लगाती,
त्योहारों में भी ऑफर के अच्छे-अच्छे ढ़ेर लगाती ।
छोटी बड़ी हर जरूरत, पसंद-नापसंद का ख्याल किया करती थी

कोई क्षण भर का नहीं, मुद्दतों का साथ था हमारा,
निःस्वार्थ और पूर्ण समर्पण सा प्रेम उसका ।
किस्सा यही जो मोबाइल के जमाने से शुरू हुई थी
कभी कॉलेज, तो कभी किसी कोर्सेज के फायदे गिनाना उसका ।

मेरी बेरोजगार तपती धूपों की छांव हुआ करती थी
इधर उधर भागते इंटरव्यूओं की पांव हुआ करती थी ।
उसका ही तो ये प्रयास है, आज जो जॉब में हुँ
जाने कहाँ से रोजगार के अजीबोगरीब ऑफर लाया करती थी ।
वो टेलीकॉलर वाली लड़की............हाँ
कितना चाहत था उसे, शायद प्यार किया करती थी ?

अदभुत और अद्वितीय थी वो, थी भले अनदेखी
भला कोई, कौन अपना इतना सब करता है ?
अपने चाहने वाले को भी कोई शौतन को सौंपता है
जब ऑनलाइन शादी के रिश्ते उसने मेरे लिए लाया था,
और हाँ ! शायद हनीमून का पैकेज भी तो उसीने दिलाया था,
सस्ता कह पहली बार हवाई जहाज का सुख दिलाया था ।
वो टेलीकॉलर वाली लड़की............हाँ
कितना चाहत था उसे, शायद प्यार किया करती थी ?

मगर हाय सरकार को कभी ये प्यार रास नहीं आया
डीएनडी पंजीयन ने बनते रिश्ते का सत्यानाश जो कराया ।
भूले-बिसरे अब किसी वास्ते टेलीकॉल तो आ जाता है,
मगर वो टेली कॉलर वाली लड़की.......अफसोस
दूसरी तरफ से वो आवाज, वो मिठास नहीं होती ।
इसलिए तो मेरी तल्खियां, कुछ बेपरवाह ही होती ।

सोचता हूँ की काश वो होती तो
बच्चों को अब लोरियां भी शायद सुनाया करती
मेरा भविष्य संवारा, मेरे बच्चों का भी संवारती
काश हाकिम के नियमों की जो सूली ना चढ़ी होती ।
वो टेली कॉलर वाली लड़की ..........हां
कितना चाहत था उसे, शायद प्यार किया करती थी ।

मीडिया का बदलता दौर

ज्योंही घटना घटित होती है,
प्रतिक्रिया त्वरित होती है ।
वो जमाना भी और था,
पत्र-पत्रिका, पुस्तक, अखबार
और सभाओं का दौर था ।

ऐसे मंचों से जब एक से बढ़कर एक
वक्तव्य निकल आया करते थे ।
समस्याएं ही नहीं, उसके
हल भी निकल आया करते थे ।

अब तो घटना-दुर्घटना ही मौन है,
मतलब के मुद्दे गौण हैं ।
बात-बेबात पर चिल्लाने वाले,
टीवी-अखबार, आंदोलन सर पर उठाने वाले ।

पैसा चाहिए, झूठ भी चल जाएगा
नीति-नैतिकता का अब वरण कौन करे ?
सच मरता है तो मरे, क्या मौन बदल पाएगा,
भीष्ण समर से भिड़ने का अब प्रण कौन करे ?

पुरुष की अभिलाषा ' कौन हूँ मैं '

कौन हूँ मैं.....?
जो तेरी नज़र देखे वो मैं हूँ ।
बंद आंखों से.....
खोल मन के सारे कपट तो मैं दिखूँ ।

गूढ़ बहुत, लेकिन अनबुझ सवाल नहीं हूँ मैं,
पा न सको ऐसे भी जवाब नहीं हूँ मैं ।
रीत सारे जग के निभाके, हर पग पग साथ चलूँ ।
ना हो द्वेष किंचित भी, कुछ तुम कहो, कुछ मैं कहूँ ।
मैं भगवान नही, ना मुझे किसी देवी की आस
धूप हो, छांव हो, हर कदम हो साथ और तुम हो पास ।

मैं राम नहीं, सीता की चाह नहीं
पर हूँ क्षत्रिय, पितृभक्ति औ वचन से बंधा हूँ ।
ना मैं श्याम जो वरु पत्नी सोलह हजार एक सौ आठ को,
पर प्रेम व कर्म ऐसा कि हर दिल में बसता हूँ ।

ना मैं अंध धृतराष्ट्र, घर-घर की महाभारत देख,
दुनियादारी की कपट होशियारी पे
गांधारी संग, आंख कैसे फिर मूंद सकता हूँ ।
ना ही मैं पांडव, लगा दूँ जो भार्या को दांव पर फेंक पाश,
और फिर बदलेस्वरूप खुद के वंश का ही कर लूँ नाश ।
ना ही मैं राजा चित्तौड़ का, पद्मिनी है जिसके पास
पर दिखा सकता हूँ जौहर दुश्मन को, अर्धांगनी की रक्षावश ।

बुद्ध की धरती से हूँ, पर मैं बुद्ध भी तो नहीं
घर-बार मोह छोड़, लोगों को मोक्ष दिलाया,
नव ज्ञान की ज्योति से सबकी आत्मा को जगाया ।
ना मैं विवेकानंद, नहीं मुझमें वो बल,
धर्म औ धरा के उत्थान में जिसका ब्रम्हचर्य था अटल ।
मैं आज का गांधी भी तो नहीं,
जिसे था अपनी बीवी से ज्यादा, भारत माँ से प्रेम
सत्य-अहिंसा का फिर से पाठ पढ़ा, जगाया जो देशप्रेम ।

ना असुर-दानव मैं, की बहुत सी अच्छाई जिंदा रखा हूँ
ना ही योगी, ना भगवान मैं, कि धानी में मेरे भी दाग है ।
तो फिर कौन हूँ मैं, कौन हूँ ? कैसा ये बवंडर ?
मैं वो ही हूँ, जो समेट रखा है परमब्रम्ह खुद के अंदर
मैं सत्य हूँ, शिव भी, शक्ति भी मैं, मैं ही हूँ सुंदर ।

ये कातिल गेसुयें

उफ़ ! ये कातिल, ये गेसुओं की लताएं  !

स्वेत कपाल पे स्याम मोतियों सी घटायें ।
भौहं संग लिपटी, वृक्ष चंदन भुजंग चढ़ आये ।
नयनों के संग फिर ये गुपचुप साजिश कैसी,
की घोलती है फिज़ा में चाहत की एक गरल सी ।
इठलाती मसनद ए गुल वाली गालों की वादियों में
उतरती, फिर लहराती जब ग्रीवा की घाटियों में ।

कमबख्त दिल ए मुंतशिर, अरसे मियांद की
अब किस कोतवाली, कहीं फरियाद हो उनकी ।
मेरे दिल के आलिंदों को इस कदर फांस ली हैं,
जान लेने का ये कोई मुनासिब तरीका तो नहीं ।

उफ़ ! ये कातिल, ये गेसुओं की लतायें  !

अधूरी मुलाकात 2

फिर एक मद्धम सरसराहट उस बासंती की
और मन बांवरा बन कोयल सा कूंक जाते हो
जुबां, आंखे, ये सांसे सब बंद होने को इस कदर
जाने कैसी बयार संग अपने लाते हो ।
मेरी कलम-मेरी नज्म में जज्बातों के,
जाने कौन सी जान फूंक जाते हो   ।।

बस धुंधलेपन में एक हुस्न ए शय छोड़
किसके चाहत के आशियाने को महका जाते हो  ।
सामने होकर भी यूँ  हुनर ए बेपरवाह,
हर बार आँख मिचौनी इस अदा से खेल जाते हो  ।
खामोश ए दिल के लम्हें, हर मंद स्पंदन पे
जाने कैसी राग छेड़, एक कसक छोड़ जाते हो  ।।

गोपाल संग प्रीत

तप्त धरा देख बदरा तरसे
मूर्क्षित पर्ण-तरुवर पे प्राण छींटने
बिन सावन, बिन नक्षत्र बरस जानी ।

भँवर-पुष्प क्या कोई बैर पुरानी
कोमल अधरों का आलिंगन दे जिसे
डंकों से आहत वो मधु भरी रसधानी ।

क्षीर को भी अमृत बना दे,
हर बूंद उसकी तन मन शीतल करे
ऐसी वो शरद पूर्णिमा की / पूरण चाँदनी ।

है अथाह अविरल व्याप्त जग में
उसकी आश की बूंद-बूंद को न तरसे
ऐसी प्रीत की डोर गोपाल संग बाँधनी ।

कारोबार धर्म का

यहाँ धर्म का ठेकेदार है,
तो कहीं पूजा का कारोबार है
जरा देखना, ये कौन है मंदिर में ?
भक्त जमानती तो भगवान फरार है ।

इतनी भीड़ क्यूँ, जिस दर देखो, सभी कितने परेशान हैं
थोड़ा ठहर के और सोच लो, अभी और कितने अरमान हैं ।
जिसकी तुझे आश, वो तेरे ही पास, कब उसके बस की रही
जो उसकी तुझसे चाह है उसकी तो तुझे प्यास ही नहीं ।

टेक सको तो, टेक लो माथा शुकुन भर
भुजंग लिए वहाँ तो कोई पहरेदार खड़ा है ।
मिटा हो मैल, मिले जो मुक्ति तो हमे भी बताना,
चंदा तहसिलने वहाँ तो कोई साहूकार पीछे पड़ा है ।

जब आंख खुली मन की, तो ही पड़ा ये जान
पूज्य औ पुजारी दोनो दिखें एक ही समान ।
वो मन फेरे, तू किसी और फेर में अगम्य है
अदृश्य है तो अदम्य है, वो करे तो सब क्षम्य है
हो रहा किसी के लीलाओं का यहां गुणगान
देह वालों की करतूतों से जग देखो परेशान ।

कुकर्म का लगा मैल चढ़ा है गहरा, अब किस घाट धुले
भय, भ्रम का कोई मंत्र अब किस मंदिर-मस्जिद मिले
इस आश में कितने नदी डूबे, तो कई पहाड़ चढ़े
खाक छानते फिरे शहर, जंगल और बियावान
उम्रभर जोड़ते रहे जो घटाकर, क्या गरीब क्या धनवान
अब कुछ खो गया है, क्या ढूंढे दर-दर जो होके परेशान ।

मांगने ही आया है तो फिर ये रिश्वत क्यों
ये धूप, फल-फूल, चादर फिर किसके लिए  ।
पत्थर ही तो है, फिर ये सोने का चढ़ावा क्यों
बांटा ना जो और बंदों में, ये दान-पुण्य किसके लिए  ।
उसके दर पे ही ये दिखावा, इतना आडम्बर क्यों
जो लाना था मन ला न सका, ये तन किसके लिए  ।

लड़खड़ा कर अभी और गिरेगा जमाना
कोई और भी है, जो बदनाम बड़ा है ।
की तेरे दर से , मयखाना लाख भला
गम भुलाने, मय लिए शाकी आतुर खड़ा है ।
यहाँ भी तो फरियादी ही दिखते,अंतर बस
सोम में डूबा जिंदगी का कोई मदहोश पड़ा है ।

संसद के गलबहिंयाँ-आंखमिचौनी (भाग-1)

                        भाग -1

तू हीं अब अंतिम शेर हऊअ यहाँ, ई गुमान काहे
सब दाँव हारल के भरी सभा में अईसन अपमान काहे ।
तू अगर गंगापुत्र भीष्म हऊव न, तो ई कलयुग
शिखंडी से लड़े खातिर, फिर तीर, समशीर मयान काहे ।

मानलीं की भूकम्प न आईल उ नवसिखवा वाणी से
अउर खड़ा हऊअ सही सलामत तनके अभिमानी से
हुकूमत के ताज तोहार सिर लगे, चहुंओर जीत के रंग चढ़े,
फिर भी तोहार परेशान मन, इतना उफान काहे  ।

आज एगो नादान मेमना के गलबहिंया पे इतना रोष
ओकर निष्कपट नैनन के तीर से आहत, उड़ल बा होश ।
का न घटित होईल यहाँ, कौऊन करम-गरिमा अबतक शेष
प्रत्युत्तर में अंगुरी नचा-नचा के, फिर इतना उलहान काहे ।

जंगल सरीख इ महाभारत के खेल, के लगे छुपल बा
तू कर तो बड़का कलंदर, दूसर के कटाक्ष जैसे घुड़की देत कोई बंदर
ताली तो दोनों हाँथ से बजल, तू हूँ कोन मान रखलअ
इ पाठ ईमान के, ई मर्यादा के फिर इतना ज्ञान काहे ।

न कबहुँ बड़बोल, धैर्य-शील होय के चाहीं हाँथी नीयन
लाख चाहे एक सुर में भूँकत सब स्वान राहे ।
का हो सकीला की विकास हो, इपे मंथन होय के चाहीं
बितल रितिया पे खाली इतना बगुला ध्यान काहे ।

सिमटते नदी-तालाब

नादानों ने कुठार पर ही दे मारे अब पांव
अपनों ने ही तेरे बदन पे दिए कितने घाव
फिर , किस मुंह से कहूँ गंगा की तू हमारी माँ है ?
नदी ही समझा होता, व्यर्थ ही माँ माना
वो वृद्धाश्रम में दिन गिनती, रोती - बिलखती
नए युग में पुराने कबाड़ सी उपेक्षित माँ है ।

भागीरथी भी रोता होगा देख हश्र अब,
उतरी थी धरा पे गंगा, अथक तप औ सदियों की पुकार में
थी वो अविरल पावन सी, अमृतमयी, वैतरणी, पापनाशनी,
सिमट रही नालों में, अब खुद मोक्ष के इंतजार में ।

हे ! गंगा तेरे अकेले की नहीं, हर नदी की यही कहानी है
जल रहा है रोम और नीरो को चैन की बंसी बजानी है ।
हे ! जटाधारी शंकर इस बार जब कैलाश आना
पल पल पिघलते गंगोत्री - यमुनोत्री का दर्द तुम मिटाना

जिन नदियों ने सभ्यता-संस्कृति जना है
माँ का दर्जा देकर पूजा, जिन्हें वेद-पुराणों में ।
पर्यावरण का हश्र देख, अकुलाती अब वसुंधरा
धिक्कार उन आर्यपुत्रों पे, वक्त रहते ना जागे
जल, जंगल, जमीन, क्या सौंपोगे भविष्य को आगे
विकास ही ना बन जाये भस्मासुर, जो तू अंधा बना है ।

तेरे कारस्तानियों के भयावह चर्चे सारे ब्रह्मांड में
पीढ़ियाँ झेलेंगी प्रकृति के बिगड़ते रूप प्रचण्ड को
मोड़ा है जो मनमाफिक प्राकृतिक बहाव को
देखो कबतक कैद रहें नदियाँ डैमों की आड़ में ।
उर्वर हरियाली कब की दम तोड़ चुकि है
दूर-दूर तक फैले, कंक्रीटों के बिछावन तले
उजड़ गए बाशिंदों के कई खेत - कई गांव,
बिजली - पानी और सिचाई के चंद इंतज़ाम में ।

गनीमत थी सेठ ने फेंक दी थी रोटी अबकी सुखाड़ में
लाखन की फुस की झोपड़ी कहाँ बची इस बाढ़ में ।
चिरकर जंगलों को तुम नदियाँ जोड तो लोगे
खुद मिट ना जाओ कहीं प्रकृति के खिलवाड़ में
खेल लो ये खेल भी बेसक,
जबतक धरा मौन पड़ी है
नहीं जो बचाया नदियाँ, तो क्या तुम बचोगे,
फैसले की ये घड़ी है ।

बिना जलछाजन, व्यर्थ हो जाना है तुझे
क्यूँ गरजता है मेघ, मेरे छत-आंगन पे ।
जा, भर दे गोद, हरा-भरा कर दे
फिर से बरसकर, मेरे खेत औ नदियों से।
और, मिटा दे मंसूबे, रेत के ठेकेदारों की,
उजाड़कर नदियों को, घर-जेब भर रहे जो
सुना है, मैला बहुत है माँ का आँचल
शहर और कारखानों की गंदगियों से ।

पहचाने जाते थे गांव कभी,
कुएँ, तालाब, पोखर, आहरों से ।
ढूंढ पथिक, जहाँ वो नामोनिशां बचा हो,
अब खुदते हैं, बस मनरेगा के फाइलों में ।

तेरे शहर की चकाचौंध सड़कों - इमारतों में
जाने कितने तालाब - नालों की लाशें दफ़्न हैं ।
तेरे शहर के लोगों को हाकिम, देखा है
बाल्टी भर पानी खातिर, जंग लड़ते हुए ।

फादर्स डे पे

नई पोथी पढ़, मगरूर बड़े, मॉर्डन बड़े
पुरातन-सनातन के नाम पर देखो चिढ़ जाते
सभ्यता- संस्कृति छोड़ , झूठ के चकाचौंध पर हर्षाते
हों आँख के अंधे और नाम नयनसुख कहलाते ।
वाह रे ! पाखंडियों गजब का विधान रचा है,
हिंदुस्तान की कब्र पे विदेशी ताजमहल सजा रखा है ।
प्यार और रिश्तों के लिए अब तारीख मुक़र्रर कर
माँ बाप के लिए भी एक दिवस बना रखा है ।

तुम आर्यपुत्र, विदेशी मायावी बाहों में कैसे झूल गए
सनातन की शिक्षा, संस्कृति, संस्कार को कैसे भूल गए
वो हरिश्चन्द्र का था कर्म ,वचन, सत्य अटल,
और राजा के परिवार की बिखरी कहानी थी
शान्तनु मत्स्यगंधा के प्रेम में थे आसक्त
और भीष्म को ब्रम्हचर्य की प्रतिज्ञा उठानी थी
मंथरा-कैकयी का कपट, दशरथ वचन से बंधे थे,
वनवासी हो गए राम, होनी की ये कैसी मंजूरी थी
धृतराष्ट्र जन्म से अंधेे, पर गांधारी की क्या मजबूरी थी
भला क्या तपस्वीश्रवण को बहंगी खींचनी जरूरी थी ?
माँ बाप को तीनों लोक मान, लंबोदर ने नापी वो दूरी थी ।
ऐसी कथा पुराणों ने ही तो नींव धरम संभाल रखा है ।

जिस पश्चमीकरण के तुम अंध पिट्ठू बने हो
अर्थ और काम में जो तुम आकंठ सने हो ।
उपभोगवाद से त्रस्त वो, तेरी संस्कृति को हर्ष अपनाते
सत्य की कसौटी पर खरे, वेद पुराणों का सारतथ्य हैं पहचानते ।

आइंस्टाइन को सापेक्षता का सिद्धांत दिया
न्यूटन को गुरुतुवाकर्षण का ज्ञान दिया ।
गीता का भेद समझ परमाणु बम रच डाला जिसने
ग्रह-नक्षत्रों और ब्रह्मांड के रहस्य सुलझा डाला जिसने
अरे ये तो आधार दे रहीं आज के विज्ञानों को
गैरों के बहकावे में, त्यागा था तुमने जिन वेद पुराणों को ।

सावधान हो जाओ ऐसे नक्कालों से
जिगर के टुकडे, रग़ों में पले दूध के संपोलों से
इस खास एक मौके पर तुम आओ तो प्यार जताएंगे,
साल के बाकी दिन फिर कश्मकश में, आंख कैसे मिलाएंगे ।
शुक्र है गरीबी ने अभी वो ईमान धरम बचा रखा है
अमीरी ने तो अपनी जड़ों को वृद्धाश्रम पहुँचा रखा है ।

आज अक्सर जड़े कट जाती हैं,
जब कोंपलें पूर्ण सबल खिल जाती हैं ।
जिस डाली के तुम फूल बन, रूप-खुशबू पर इतराते हो
वर्षों सींचा होगा जब जड़ों ने,
धूप बरसात भी सहा होगा तनों ने,
सर्वस्व न्यौछारा किया होगा तेरे खातिर,
तब जाकर इसकी छावं घनी तुम पाते हो ।
और बैठ तले इसके, क्षद्म सिद्धान्त के राग गाते हो  ।

दूर अपने पिण्ड से , भूलके रिश्ते नाते, बंद आशियाने में
कहते हैं अकेले हैं बहुत, बहुत परेशान हैं ।
बहुत से रिश्तों से तो अनजान हैं
पर कई को तो मजबूरी का पल बना रखा है ।
ताऊ फुआ मामा वाले रिश्ते अब चंद निशान हैं,
कमाई की चादर ने परिवार जो एकल बना रखा है ।
तेरी मोह-माया और दुनियादारी की कपट होशियारी ने
इस अर्थ ने ही तो सारा अनर्थ बना रखा है ।

गनीमत है की अभी एक दिन का सब्र बचा है ।
कहीं ना कहीं इंसान तुम्हारे अंदर का जीवित बचा है ।
काश वो दिन न दिखाए, जब ये सब्र क्षण भर का हो ,
वो क्षण किसी झोली में न आये, जब रिश्ते भ्रम का हो
दिखावटी प्यार नहीं, मुश्किल घड़ी में हाँथ छूट न जाये
और छोटी - छोटी बातों पर रिश्तों की डोर टूट न जाये ।

अधूरी मुलाकात

वो आयी थी पगली मेरी, किसी बहाने से
पास होकर इतने, उस हंसीन नज़राने से
जाने क्यों मायूसियों की मूरत बदल गई ।
एक डर सा खामोश लबों पे, दिल आज़माने से
कोशिश तमाम थी, पा लेने की जिसे जमाने से
हमारी सारी तैयारियों की सूरत बदल गई।

मशगूल थे खुद में, जाने कौन सा ऐब छुपाने में
पढ़ लेती, माथे की शिकन, जख्मों के दर्द औ निशां
बस आंखों से आंखों की मुलाकात अधूरी रह गई ।
खिल उठती चांद चमक चाँदनी, ओस की बूंदों में
मिट जाती सर्द, छँट जाती काली स्याह परत भी
बस अहसास, ख़्यालात और सारी जज्बात अधूरी रह गई ।

दूल्हे की कविता

हैलो ! ...हाँ... हम दूल्हा बोल रहे हैं ।
तीस धूप-छाँव और लू के थपेड़े सहकर
येन-प्रकारेण नौकरी पाकर, पूर्णतः निर्मित
सर्वगुण संपन्न, टिकाऊ, बहुउपयोगी, वारंटी युक्त ।
रिमोट चालित मन बहलाने का खिलौना हो जैसे
शो-पीस सा शादी के बाज़ार में सज रहे हैं ।

चलिए आज आपको अपना अर्थशास्त्र समझाते हैं
हालिया बाजार भाव से थोड़ा अवगत कराते है ।
सरकारी नौकरी वाले उच्च पद वाले या निम्न पद वाले
कोई से मॉडल हों, हांथों-हाँथ हैं बिक जाते ।

डॉक्टर-इंजीनियर, या एमएनसी(MNC) का हो तो
प्राइवेट वाला भी माल कोई बुरा नही ।
बस एक्सपायरी डेट बेरोजगार बीच भँवर मंडराते,
सेल में थोड़े बहुत नए, तो थोड़े पुराने पीस हैं बिक जाते ।

कुछ सस्ते बढियाँ सेकण्ड हैण्ड मॉडल भी हैं, दिखाऊं क्या ?
आपको किस रेंज में चाहिए, जरा अपना भी च्वाइस तो बताइये
दहेज के डिमाण्ड की एक लंबी चौड़ी फेहरिस्त है जनाब
हम नाना प्रकार के हर बजट, हर औकात में हैं पाए जाते।

वैसे, तनख्वाह में तो पाँच जीरो होने ही चाहीए
एस्नो - पाउडर / सिंगार-पटार से ठीक ठाक दिख जाता हो
बीड़ी-सिगरेट, पान-गुटका, दारू ना मुंह लगाता हो ।
बाप दादा की कितनी भी हो जमीन, क्या करेंगे जनाब
बिटिया को थोड़े ही खेतो में हल चलाने जाना है
शहर में अपना घर हो, गाड़ी हो, एसी का ज़माना है।

देखिये कोई डिफेक्टिव पीस न हमे थमाइये,
खाता-पीता ठीक ठाक परिवार हो तो बताइये ।
माना, अब संभव नहीं, हींग लगे ना फिटकिरी रंग चोखा होय,
लेकिन दाम भी लगे, ना कोर्ट कचहरी और धोखा होय ।
दरकिनार पूराने वसूल, बाज़ारवादी उपभोगवादी संस्कृति में
अब कहाँ कोई दशरथ, कोई जनक से आदर्श बचे प्रकृति में ।

वैसे तो, पापा की परी, पापा की शान, अभिमान हैं बेटियां
आज किस मायने में कम, किस हुनर से अनजान हैं बेटियां ।
हम लड़को का क्या था, छड़ियों से पले थे, निठल्ले बड़े थे
कूटे गए थे दमभर, तब जाकर किसी मन-मंदिर के शिवलिंग पड़े थे ।
पत्थर से हम पारस बने,आज सारे कसर, सारे अधूरे सपने पूरे होने है
लाखों में बोली लगी है, सोने में तौलने खरीदार आतुर खड़े हैं ।

अये दुनियावालों ! दोष मेरा अकेले का ही है क्या ?
पुराने रीत के नाम पर, देखो होता है क्या- क्या ?
खरीदारों ने तो बस सदियों से बोली लगाई है
दहेज के लोभियों ने जाने कितनी बेटी जलाई है ।
बाजार में बिकते वस्तुओं की फिर कहाँ जुबान होती है?
शहनाईयों की गूंज में, नेपथ्य में बस विरोध सिसकती है।

काश ! कोख से ससुराल तक अब ना मरे कोई बेटी
गिरवी बाप की अस्थियों पर, कैसे सिकती तेरे चूल्हे की रोटी ।
बेशक अमीरों के रहे हों चोंचले, चुभता नासूर सा फैशन है
बंद हो दहेज का चलन, हुक्मरान ने भी ठाना जतन है
लोगों ने अब क्षद्म सिद्धान्त और समाज ने रूप नया गढ़ लिया है
वैसे भी नए ज़माने में, सर्विस वाली बहू का चलन है ।

भक्ति वंदना

संभवतः वर्ष 1998 से पहले की, स्कूल के दिनों में लिखी हुई कविता को, बरबस आज अपने ब्लॉग पर पोस्ट करने का अवसर प्राप्त हुआ है ।

                       भक्ति वंदना

तु पत्थर का बुत है,
ये सभी जानते हैं ।
फिर भी, तुझे सभी,
भगवान अपना मानते हैं ।।

अमुक है, शान्त है,
स्वरूप है अज्ञात शक्ति का ।
श्रद्धा, पूजा सहस्रों का,
व्याप्त है सभी के धड़कनो में,
अतएव हमारे पूज्य है ।।

तू माटी का इंसान नहीं,
नश्वर या बलहीन नहीं,
जीवंत स्वरूप शक्ति का,
श्रद्धा से ही मिल सके,
कुप्रवृत्ति के तू संग नहीं ।।

सृष्टि तेरी रचना,
फल-फूल तेरी कृति,
हवा, अग्नि, दास सभी
व्याप्त है जो जनजीवन में ।।

भक्ति से तू निकट सभी के,
करुणामय अमृत प्राप्त हो,
सुख-वैभव की बरसात हो,
हरि नाम दो अक्षर,
आनंद की खुली मार्ग हो ।।

राम, कृष्ण, बुद्ध सभी,
स्वरूप निराले तुम्हारे,
जन-जन में वास किया,
सभी बिगडों का उद्धार किया ।

जिसने तुझे स्वीकारा,
तेरे निर्गुण स्वरूप को माना ।
गदगद हुआ अपने जीवन से,
प्रख्यात हुआ जनजीवन में ।।

इतनी तु मुझे शक्ति दे,
बुराइयों से लड़ सकूँ ।
लोभ, मोह, व्यभिचार से परे होकर,
नित्य तेरी वंदना कर सकूँ ।।

राजनीति चरित्र मानस सह महाभारत

धैर्य, धीरज और धरिये थोड़ा ध्यान
गोपाल आये हैं बांटने, काव्य ज्ञान
आइये आज आपको ताज़ा हाल सुनाते हैं
राजनीति का चरित्र मानस पाठ कराते हैं ।

अथ श्री विपक्ष नेता उवाच :-
मंगल भवन, अमंगल हारी
आन पड़ी लोकतंत्र पर विपदा भारी
द्रबहु सुदसरथ अचर बिहारी,
गड़े मुर्दे खोद, केस में फंसी विपक्ष बेचारी
सियाराम,सियाराम, सियाराम, जय जय भगवान
बचाओ-बचाओ, की, खतरे में है संविधान

अथ श्री सत्ता पक्ष उवाच:-
तुम्हारे अधर्म-कुकर्म से तो इतिहास पटा है
सत्तर साल तुमने देश लूटा, हमें रखा भूखा ।
हमसे तुम्हारी क्यूं जल रही, देखो नींव तुम्हारी हिल रही
जनता होके त्राहिमाम, शासन की बागडोर हमें थाम
विश्वास जगा है, हर तरफ विकास का सूरज उगा है
देश के दुर्भाग्य से अब नाउम्मीदी का बादल छटा है ।

माना कि, स्थिति ना बेहतर, ना बद से बदतर है
बेपटरी हो चुकी गाड़ी,अब,पकड़ी थोड़ी रफ्तार है ।
शासन का नया ये कलेवर, थोड़ा अलग ये तेवर है
कुछ काम अच्छे, तो कुछ पर प्रश्न चिन्ह खड़े हैं
उम्मीद अभी बाकी है, थोड़ा समय देना बनता है
पर नाकाम-हताश विपक्षी उद्द्विग्न बड़े हैं ।

अथ श्री जनता उवाच :-
जनता का जनता के लिए है लोकतंत्र
पर, नेताओं द्वारा खेल ये, शतरंज मनपसंद ।
लोकतंत्र नहीं, वो इसे जनता का स्वंयमवर माने
जनता को रिझाने, जुटते नेता सारे सयाने ।

राजभोग गटकने वालों की, कुम्भकर्णी नींद
खुलती है तब-तब, जब बजे चुनावी बिगुल ।
जनता की भलाई का तब, खूब पिटे ढोल
रंगा सियार चोला बदल, बोले महात्मा के बोल

फैसले की घड़ी, धूर्त नेता मति फेरे हर बार ही
कैसे बचें जनता, लुभावने भाषणों के मायाजाल से
बिक जाते चंद नोटों में, देखते बस छणिक लाभ ही
देश चुगे नेता रोज और जनता बेबस फटेहाल से

मर रहे जवान-किसान, नौकरी ढूंढते नौजवान
मौन संसद का ये कैसा नीति निर्माण  ।
असुरक्षा है, बढ़ी है महंगाई, धर्म का बाजार बढ़ा है
देशहित के स्वर्ण मृगमरीचिका का ढोंग रचा है ।
विकास की परवरिश खातिर
नेता रहते कितने हकलान - परेशान ।
पर, देश की भूख - गरीबी से लड़ते लड़ते
जाने कैसे बंधु-बांधव समेत , बन जाते धनवान ?

वैसे भी नेताओं का कब टिका ईमान धर्म है ?
आपसी लड़ाई में, किसने जाना जनता का मर्म है
अब न कान्हा, ना गीता के उपदेश, सत्ता के लिए
बस महाभारत सा छल,कपट, प्रपंच, मिथ्या है शेष ।

अथ श्री सत्तापक्ष उवाच:-
रचा है फिर चक्रव्यूह, अभिमन्यु मार गिराने को
छद्म लोकतंत्र के खतरे का, खेल है बस दिखाने को
आज एक सौ पे भारी, दो सीट वाले ने ठाना मिशन है
कलयुग के कौरवों का, बिगड़ा सारा समीकरण है ।

विरोध का आलम भी, आजकल है अजीब
दक्षिणपंथी को मिटाने, एक हुए दुश्मन पुराने
बेताल-बेसुरों का अब बस, अंतिम है तरकीब
छतीस गुण की कुंडली मिलान, हुआ ये ऐलान
गर हाँथ से हाँथ मिल जाएगा,
लालटेन से भी विकास का कमल खिल जाएगा ।
कँही का ईंट कँही का रोड़ा है,
सुना है कि भानुमति ने कुनबा जोड़ा है ।

अथ श्री विपक्ष उवाच :-
माँ-बेटा को है अटल विश्वास
एक दिन चखेंगे जीत का स्वाद ।
मोदी की लंका वो लगाएंगे
पप्पूवाले भी सेहरा सजायेंगे ।

कोई तो घर का भेदी लंका ढाहेगा
वो विभीषण सिद्धू या सिन्हा कहलायेगा ।
काश संजीवनी हरले कॉंग्रेस की प्राण
लेकिन विकट समय में कौन बने हनुमान ?
                               
क्या बुआ, भतीजा और दीदी,
लाएंगे फूल मुरझाने की विधि ?
या,लालू के दो अनमोल रत्नजोड़ा
रोकेंगे बीजेपी के अश्वमेघ का घोड़ा ?

अब ना फूले छप्पन इंच का सीना
उठो पार्थ (केजू) ! लगाओ झाड़ू निशाना ।
शतरंज की बिसात में होगा अब शाह औ मात
जब धूर विरोधी चूहे-बिल्ली लगाएंगे एक पात ।

अथ श्री जनता उवाच:-
धृतराष्ट्र जनता को है, सब विदुर ज्ञान,
मूर्ख बनाना ना अब इतना आसान ।
एक तरफ कौरव, एक तरफ लंकेश,
यक्ष प्रश्न अभी भी है शेष ?
जो इस कलयुग में
वनवास राम का मिटाएगा
और रामराज्य लाएगा
वही विजयी युगपुरुष कहलायेगा ।

कसम तुम दोनों को संविधान की,
कब, कौन, कितना ठगा है या ठगा था ?
विकास के अपहरण में और देश के चीरहरण में
कौन भरी सभा में, मौन खड़ा था ?