सिमटते नदी-तालाब

नादानों ने कुठार पर ही दे मारे अब पांव
अपनों ने ही तेरे बदन पे दिए कितने घाव
फिर , किस मुंह से कहूँ गंगा की तू हमारी माँ है ?
नदी ही समझा होता, व्यर्थ ही माँ माना
वो वृद्धाश्रम में दिन गिनती, रोती - बिलखती
नए युग में पुराने कबाड़ सी उपेक्षित माँ है ।

भागीरथी भी रोता होगा देख हश्र अब,
उतरी थी धरा पे गंगा, अथक तप औ सदियों की पुकार में
थी वो अविरल पावन सी, अमृतमयी, वैतरणी, पापनाशनी,
सिमट रही नालों में, अब खुद मोक्ष के इंतजार में ।

हे ! गंगा तेरे अकेले की नहीं, हर नदी की यही कहानी है
जल रहा है रोम और नीरो को चैन की बंसी बजानी है ।
हे ! जटाधारी शंकर इस बार जब कैलाश आना
पल पल पिघलते गंगोत्री - यमुनोत्री का दर्द तुम मिटाना

जिन नदियों ने सभ्यता-संस्कृति जना है
माँ का दर्जा देकर पूजा, जिन्हें वेद-पुराणों में ।
पर्यावरण का हश्र देख, अकुलाती अब वसुंधरा
धिक्कार उन आर्यपुत्रों पे, वक्त रहते ना जागे
जल, जंगल, जमीन, क्या सौंपोगे भविष्य को आगे
विकास ही ना बन जाये भस्मासुर, जो तू अंधा बना है ।

तेरे कारस्तानियों के भयावह चर्चे सारे ब्रह्मांड में
पीढ़ियाँ झेलेंगी प्रकृति के बिगड़ते रूप प्रचण्ड को
मोड़ा है जो मनमाफिक प्राकृतिक बहाव को
देखो कबतक कैद रहें नदियाँ डैमों की आड़ में ।
उर्वर हरियाली कब की दम तोड़ चुकि है
दूर-दूर तक फैले, कंक्रीटों के बिछावन तले
उजड़ गए बाशिंदों के कई खेत - कई गांव,
बिजली - पानी और सिचाई के चंद इंतज़ाम में ।

गनीमत थी सेठ ने फेंक दी थी रोटी अबकी सुखाड़ में
लाखन की फुस की झोपड़ी कहाँ बची इस बाढ़ में ।
चिरकर जंगलों को तुम नदियाँ जोड तो लोगे
खुद मिट ना जाओ कहीं प्रकृति के खिलवाड़ में
खेल लो ये खेल भी बेसक,
जबतक धरा मौन पड़ी है
नहीं जो बचाया नदियाँ, तो क्या तुम बचोगे,
फैसले की ये घड़ी है ।

बिना जलछाजन, व्यर्थ हो जाना है तुझे
क्यूँ गरजता है मेघ, मेरे छत-आंगन पे ।
जा, भर दे गोद, हरा-भरा कर दे
फिर से बरसकर, मेरे खेत औ नदियों से।
और, मिटा दे मंसूबे, रेत के ठेकेदारों की,
उजाड़कर नदियों को, घर-जेब भर रहे जो
सुना है, मैला बहुत है माँ का आँचल
शहर और कारखानों की गंदगियों से ।

पहचाने जाते थे गांव कभी,
कुएँ, तालाब, पोखर, आहरों से ।
ढूंढ पथिक, जहाँ वो नामोनिशां बचा हो,
अब खुदते हैं, बस मनरेगा के फाइलों में ।

तेरे शहर की चकाचौंध सड़कों - इमारतों में
जाने कितने तालाब - नालों की लाशें दफ़्न हैं ।
तेरे शहर के लोगों को हाकिम, देखा है
बाल्टी भर पानी खातिर, जंग लड़ते हुए ।

फादर्स डे पे

नई पोथी पढ़, मगरूर बड़े, मॉर्डन बड़े
पुरातन-सनातन के नाम पर देखो चिढ़ जाते
सभ्यता- संस्कृति छोड़ , झूठ के चकाचौंध पर हर्षाते
हों आँख के अंधे और नाम नयनसुख कहलाते ।
वाह रे ! पाखंडियों गजब का विधान रचा है,
हिंदुस्तान की कब्र पे विदेशी ताजमहल सजा रखा है ।
प्यार और रिश्तों के लिए अब तारीख मुक़र्रर कर
माँ बाप के लिए भी एक दिवस बना रखा है ।

तुम आर्यपुत्र, विदेशी मायावी बाहों में कैसे झूल गए
सनातन की शिक्षा, संस्कृति, संस्कार को कैसे भूल गए
वो हरिश्चन्द्र का था कर्म ,वचन, सत्य अटल,
और राजा के परिवार की बिखरी कहानी थी
शान्तनु मत्स्यगंधा के प्रेम में थे आसक्त
और भीष्म को ब्रम्हचर्य की प्रतिज्ञा उठानी थी
मंथरा-कैकयी का कपट, दशरथ वचन से बंधे थे,
वनवासी हो गए राम, होनी की ये कैसी मंजूरी थी
धृतराष्ट्र जन्म से अंधेे, पर गांधारी की क्या मजबूरी थी
भला क्या तपस्वीश्रवण को बहंगी खींचनी जरूरी थी ?
माँ बाप को तीनों लोक मान, लंबोदर ने नापी वो दूरी थी ।
ऐसी कथा पुराणों ने ही तो नींव धरम संभाल रखा है ।

जिस पश्चमीकरण के तुम अंध पिट्ठू बने हो
अर्थ और काम में जो तुम आकंठ सने हो ।
उपभोगवाद से त्रस्त वो, तेरी संस्कृति को हर्ष अपनाते
सत्य की कसौटी पर खरे, वेद पुराणों का सारतथ्य हैं पहचानते ।

आइंस्टाइन को सापेक्षता का सिद्धांत दिया
न्यूटन को गुरुतुवाकर्षण का ज्ञान दिया ।
गीता का भेद समझ परमाणु बम रच डाला जिसने
ग्रह-नक्षत्रों और ब्रह्मांड के रहस्य सुलझा डाला जिसने
अरे ये तो आधार दे रहीं आज के विज्ञानों को
गैरों के बहकावे में, त्यागा था तुमने जिन वेद पुराणों को ।

सावधान हो जाओ ऐसे नक्कालों से
जिगर के टुकडे, रग़ों में पले दूध के संपोलों से
इस खास एक मौके पर तुम आओ तो प्यार जताएंगे,
साल के बाकी दिन फिर कश्मकश में, आंख कैसे मिलाएंगे ।
शुक्र है गरीबी ने अभी वो ईमान धरम बचा रखा है
अमीरी ने तो अपनी जड़ों को वृद्धाश्रम पहुँचा रखा है ।

आज अक्सर जड़े कट जाती हैं,
जब कोंपलें पूर्ण सबल खिल जाती हैं ।
जिस डाली के तुम फूल बन, रूप-खुशबू पर इतराते हो
वर्षों सींचा होगा जब जड़ों ने,
धूप बरसात भी सहा होगा तनों ने,
सर्वस्व न्यौछारा किया होगा तेरे खातिर,
तब जाकर इसकी छावं घनी तुम पाते हो ।
और बैठ तले इसके, क्षद्म सिद्धान्त के राग गाते हो  ।

दूर अपने पिण्ड से , भूलके रिश्ते नाते, बंद आशियाने में
कहते हैं अकेले हैं बहुत, बहुत परेशान हैं ।
बहुत से रिश्तों से तो अनजान हैं
पर कई को तो मजबूरी का पल बना रखा है ।
ताऊ फुआ मामा वाले रिश्ते अब चंद निशान हैं,
कमाई की चादर ने परिवार जो एकल बना रखा है ।
तेरी मोह-माया और दुनियादारी की कपट होशियारी ने
इस अर्थ ने ही तो सारा अनर्थ बना रखा है ।

गनीमत है की अभी एक दिन का सब्र बचा है ।
कहीं ना कहीं इंसान तुम्हारे अंदर का जीवित बचा है ।
काश वो दिन न दिखाए, जब ये सब्र क्षण भर का हो ,
वो क्षण किसी झोली में न आये, जब रिश्ते भ्रम का हो
दिखावटी प्यार नहीं, मुश्किल घड़ी में हाँथ छूट न जाये
और छोटी - छोटी बातों पर रिश्तों की डोर टूट न जाये ।

अधूरी मुलाकात

वो आयी थी पगली मेरी, किसी बहाने से
पास होकर इतने, उस हंसीन नज़राने से
जाने क्यों मायूसियों की मूरत बदल गई ।
एक डर सा खामोश लबों पे, दिल आज़माने से
कोशिश तमाम थी, पा लेने की जिसे जमाने से
हमारी सारी तैयारियों की सूरत बदल गई।

मशगूल थे खुद में, जाने कौन सा ऐब छुपाने में
पढ़ लेती, माथे की शिकन, जख्मों के दर्द औ निशां
बस आंखों से आंखों की मुलाकात अधूरी रह गई ।
खिल उठती चांद चमक चाँदनी, ओस की बूंदों में
मिट जाती सर्द, छँट जाती काली स्याह परत भी
बस अहसास, ख़्यालात और सारी जज्बात अधूरी रह गई ।

दूल्हे की कविता

हैलो ! ...हाँ... हम दूल्हा बोल रहे हैं ।
तीस धूप-छाँव और लू के थपेड़े सहकर
येन-प्रकारेण नौकरी पाकर, पूर्णतः निर्मित
सर्वगुण संपन्न, टिकाऊ, बहुउपयोगी, वारंटी युक्त ।
रिमोट चालित मन बहलाने का खिलौना हो जैसे
शो-पीस सा शादी के बाज़ार में सज रहे हैं ।

चलिए आज आपको अपना अर्थशास्त्र समझाते हैं
हालिया बाजार भाव से थोड़ा अवगत कराते है ।
सरकारी नौकरी वाले उच्च पद वाले या निम्न पद वाले
कोई से मॉडल हों, हांथों-हाँथ हैं बिक जाते ।

डॉक्टर-इंजीनियर, या एमएनसी(MNC) का हो तो
प्राइवेट वाला भी माल कोई बुरा नही ।
बस एक्सपायरी डेट बेरोजगार बीच भँवर मंडराते,
सेल में थोड़े बहुत नए, तो थोड़े पुराने पीस हैं बिक जाते ।

कुछ सस्ते बढियाँ सेकण्ड हैण्ड मॉडल भी हैं, दिखाऊं क्या ?
आपको किस रेंज में चाहिए, जरा अपना भी च्वाइस तो बताइये
दहेज के डिमाण्ड की एक लंबी चौड़ी फेहरिस्त है जनाब
हम नाना प्रकार के हर बजट, हर औकात में हैं पाए जाते।

वैसे, तनख्वाह में तो पाँच जीरो होने ही चाहीए
एस्नो - पाउडर / सिंगार-पटार से ठीक ठाक दिख जाता हो
बीड़ी-सिगरेट, पान-गुटका, दारू ना मुंह लगाता हो ।
बाप दादा की कितनी भी हो जमीन, क्या करेंगे जनाब
बिटिया को थोड़े ही खेतो में हल चलाने जाना है
शहर में अपना घर हो, गाड़ी हो, एसी का ज़माना है।

देखिये कोई डिफेक्टिव पीस न हमे थमाइये,
खाता-पीता ठीक ठाक परिवार हो तो बताइये ।
माना, अब संभव नहीं, हींग लगे ना फिटकिरी रंग चोखा होय,
लेकिन दाम भी लगे, ना कोर्ट कचहरी और धोखा होय ।
दरकिनार पूराने वसूल, बाज़ारवादी उपभोगवादी संस्कृति में
अब कहाँ कोई दशरथ, कोई जनक से आदर्श बचे प्रकृति में ।

वैसे तो, पापा की परी, पापा की शान, अभिमान हैं बेटियां
आज किस मायने में कम, किस हुनर से अनजान हैं बेटियां ।
हम लड़को का क्या था, छड़ियों से पले थे, निठल्ले बड़े थे
कूटे गए थे दमभर, तब जाकर किसी मन-मंदिर के शिवलिंग पड़े थे ।
पत्थर से हम पारस बने,आज सारे कसर, सारे अधूरे सपने पूरे होने है
लाखों में बोली लगी है, सोने में तौलने खरीदार आतुर खड़े हैं ।

अये दुनियावालों ! दोष मेरा अकेले का ही है क्या ?
पुराने रीत के नाम पर, देखो होता है क्या- क्या ?
खरीदारों ने तो बस सदियों से बोली लगाई है
दहेज के लोभियों ने जाने कितनी बेटी जलाई है ।
बाजार में बिकते वस्तुओं की फिर कहाँ जुबान होती है?
शहनाईयों की गूंज में, नेपथ्य में बस विरोध सिसकती है।

काश ! कोख से ससुराल तक अब ना मरे कोई बेटी
गिरवी बाप की अस्थियों पर, कैसे सिकती तेरे चूल्हे की रोटी ।
बेशक अमीरों के रहे हों चोंचले, चुभता नासूर सा फैशन है
बंद हो दहेज का चलन, हुक्मरान ने भी ठाना जतन है
लोगों ने अब क्षद्म सिद्धान्त और समाज ने रूप नया गढ़ लिया है
वैसे भी नए ज़माने में, सर्विस वाली बहू का चलन है ।

भक्ति वंदना

संभवतः वर्ष 1998 से पहले की, स्कूल के दिनों में लिखी हुई कविता को, बरबस आज अपने ब्लॉग पर पोस्ट करने का अवसर प्राप्त हुआ है ।

                       भक्ति वंदना

तु पत्थर का बुत है,
ये सभी जानते हैं ।
फिर भी, तुझे सभी,
भगवान अपना मानते हैं ।।

अमुक है, शान्त है,
स्वरूप है अज्ञात शक्ति का ।
श्रद्धा, पूजा सहस्रों का,
व्याप्त है सभी के धड़कनो में,
अतएव हमारे पूज्य है ।।

तू माटी का इंसान नहीं,
नश्वर या बलहीन नहीं,
जीवंत स्वरूप शक्ति का,
श्रद्धा से ही मिल सके,
कुप्रवृत्ति के तू संग नहीं ।।

सृष्टि तेरी रचना,
फल-फूल तेरी कृति,
हवा, अग्नि, दास सभी
व्याप्त है जो जनजीवन में ।।

भक्ति से तू निकट सभी के,
करुणामय अमृत प्राप्त हो,
सुख-वैभव की बरसात हो,
हरि नाम दो अक्षर,
आनंद की खुली मार्ग हो ।।

राम, कृष्ण, बुद्ध सभी,
स्वरूप निराले तुम्हारे,
जन-जन में वास किया,
सभी बिगडों का उद्धार किया ।

जिसने तुझे स्वीकारा,
तेरे निर्गुण स्वरूप को माना ।
गदगद हुआ अपने जीवन से,
प्रख्यात हुआ जनजीवन में ।।

इतनी तु मुझे शक्ति दे,
बुराइयों से लड़ सकूँ ।
लोभ, मोह, व्यभिचार से परे होकर,
नित्य तेरी वंदना कर सकूँ ।।