पुरुष की अभिलाषा ' कौन हूँ मैं '

कौन हूँ मैं.....?
जो तेरी नज़र देखे वो मैं हूँ ।
बंद आंखों से.....
खोल मन के सारे कपट तो मैं दिखूँ ।

गूढ़ बहुत, लेकिन अनबुझ सवाल नहीं हूँ मैं,
पा न सको ऐसे भी जवाब नहीं हूँ मैं ।
रीत सारे जग के निभाके, हर पग पग साथ चलूँ ।
ना हो द्वेष किंचित भी, कुछ तुम कहो, कुछ मैं कहूँ ।
मैं भगवान नही, ना मुझे किसी देवी की आस
धूप हो, छांव हो, हर कदम हो साथ और तुम हो पास ।

मैं राम नहीं, सीता की चाह नहीं
पर हूँ क्षत्रिय, पितृभक्ति औ वचन से बंधा हूँ ।
ना मैं श्याम जो वरु पत्नी सोलह हजार एक सौ आठ को,
पर प्रेम व कर्म ऐसा कि हर दिल में बसता हूँ ।

ना मैं अंध धृतराष्ट्र, घर-घर की महाभारत देख,
दुनियादारी की कपट होशियारी पे
गांधारी संग, आंख कैसे फिर मूंद सकता हूँ ।
ना ही मैं पांडव, लगा दूँ जो भार्या को दांव पर फेंक पाश,
और फिर बदलेस्वरूप खुद के वंश का ही कर लूँ नाश ।
ना ही मैं राजा चित्तौड़ का, पद्मिनी है जिसके पास
पर दिखा सकता हूँ जौहर दुश्मन को, अर्धांगनी की रक्षावश ।

बुद्ध की धरती से हूँ, पर मैं बुद्ध भी तो नहीं
घर-बार मोह छोड़, लोगों को मोक्ष दिलाया,
नव ज्ञान की ज्योति से सबकी आत्मा को जगाया ।
ना मैं विवेकानंद, नहीं मुझमें वो बल,
धर्म औ धरा के उत्थान में जिसका ब्रम्हचर्य था अटल ।
मैं आज का गांधी भी तो नहीं,
जिसे था अपनी बीवी से ज्यादा, भारत माँ से प्रेम
सत्य-अहिंसा का फिर से पाठ पढ़ा, जगाया जो देशप्रेम ।

ना असुर-दानव मैं, की बहुत सी अच्छाई जिंदा रखा हूँ
ना ही योगी, ना भगवान मैं, कि धानी में मेरे भी दाग है ।
तो फिर कौन हूँ मैं, कौन हूँ ? कैसा ये बवंडर ?
मैं वो ही हूँ, जो समेट रखा है परमब्रम्ह खुद के अंदर
मैं सत्य हूँ, शिव भी, शक्ति भी मैं, मैं ही हूँ सुंदर ।

ये कातिल गेसुयें

उफ़ ! ये कातिल, ये गेसुओं की लताएं  !

स्वेत कपाल पे स्याम मोतियों सी घटायें ।
भौहं संग लिपटी, वृक्ष चंदन भुजंग चढ़ आये ।
नयनों के संग फिर ये गुपचुप साजिश कैसी,
की घोलती है फिज़ा में चाहत की एक गरल सी ।
इठलाती मसनद ए गुल वाली गालों की वादियों में
उतरती, फिर लहराती जब ग्रीवा की घाटियों में ।

कमबख्त दिल ए मुंतशिर, अरसे मियांद की
अब किस कोतवाली, कहीं फरियाद हो उनकी ।
मेरे दिल के आलिंदों को इस कदर फांस ली हैं,
जान लेने का ये कोई मुनासिब तरीका तो नहीं ।

उफ़ ! ये कातिल, ये गेसुओं की लतायें  !