हर सुबह-शाम के हैं ये नज़ारे ।
मौसम का बदलता मिज़ाज नहीं सुहाता,
मुंह पे मास्क, हांथों में लोशन, सर पे छाता ।।
बाहर निकलना अब, दूभर होता जीवन,
बिगाड़ता सारा संतुलन, ये बढ़ता प्रदूषण ।।।
चहुंओर धुंआ उगलते बेशुमार संयंत्र,
जहरीला होता प्रकृति का आहार तंत्र ।
मानव के स्वार्थ की जो कुटिल चाल है,
सारी सृष्टीबाक कूड़े-घर सा हाल है ।।
पूरे शहर का कचरा ढो-ढोकर,
नदी सिमट रही है नालों में ।
बर्बादी का आलम ऐसा हर मोड पे,
भूजल पहुँच रही है पातालों में ।।
सभ्यता का ज्यों-ज्यों हो रहा विकास
पर्यावरण का देखो कर रहा विनाश ।
प्रकृति से अन्य जीवों का छूट रहा साथ,
बढ़ती जनसंख्या का भी इसमें रहा हाँथ ।।
प्रकृति से जुड़े जीवनदायी गर्भनाल काटे
मनुष्य अपने पैर पर ही कुल्हाड़ी मारे ।।।
ऐसा ही सब चलता रहा तो,
जल्द ही वो दिन भी आयेगा,
धरती पे टैब नहीं उगेंगे अनाज,
दवा-टॉनिक बनाने वालों का होगा राज ।
धूप से बचाव के टीके लगाने होंगे,
पानी के सिर्फ कैप्सूल खाने होंगे,
ऑक्सीजन भी तब बाज़ारों से आयेगा,
आई. सी. यू. में अगली पीढ़ी, देख-देख पछतायेगा ।।