चाहतों की गीली धूप और वो

बादलों में कोई अकड़ू बैठा है,
धूप की बाँहे जो सिकोड़कर ।
मानो मीत मायूस मनमीत मिलन में,
प्रीत पराई हुई समय की चादर ओढ़कर ।
फैल जाएं गर, तमन्नाओ की अंगड़ाई ले
चाहतों के लिबास रख दोगे फिर मोड़कर ।

अभी छितराई है उसने,
थोड़ी गीली धूप सूखने के लिए,
बंद कपाट दिल के अहाते में क्या टांग पाओगे ?
गफ़लत में मटमैली चादर फिर वो बिछा जाएगी,
और छोड़ देगी टपकने के लिए सर्द मोती भी
उल्फ़तों की गर्मी ठिठुरते होंठों से क्या माँग पाओगे ?

गुलाबी परछाईं भी जो अब सुहानी लगती है
जाने किस चौखट, किस करवट जा बैठा है ?
रुख अपना सब समेटकर ।
जफ़ा होती थी जून की आंखों में कभी,
अरमानों की आग दिल में सुलगाये,
देखो कैसे बैठे हैं वो अब लपेटकर ।

हवाओं की ठंढ़ी तासिर थे इसी आस में,
उमड़ पड़े हैं बादलों के सवार लेकर ।
चाहतों की ये जो गीली धूप है,
बढ़ जाए ना कहीं गर्म अहसास में,
जाने किस शर्म-ओ-हया, किस प्यास में?
वो पर्दा किये बैठे हैं जो हमे देखकर ।